fbpx
Skip to main content

Activities

30 जून 2024

ईशोपनिषद् - प्रो कैलाश चतुर्वेदी

वेदविज्ञान वार्ता (23) - ईशोपनिषद्

 प्रो कैलाश चतुर्वेदी 

 

शुक्लयजुर्वेदीय ईशावास्योपनिषद

प्रिय बन्धुओं।

वेदों के अन्तिम भाग एवं ज्ञानकाण्ड के रूप में प्रसिद्ध उपनिषदों की इस वार्ता श्रृंखला में पूर्व में हमने ऋग्वेदीय ऐतरेय एवं कौषीतकि के उपनिषदों की चर्चा की। आज क्रमिक रूप में प्रस्तुत है शुक्लयजुर्वेदीय ईशावास्य उपनिषद् का सार-संक्षेप परिचय, जो वस्तुत: शुक्ल यजुर्वेद सांहिता का ही मूल चालीस मंत्रों अध्याय है। मन्त्रभाग का मूल अंश होने के कारण अन्य उपनिषदों की अपेक्षा इसका अधिक महत्त्व है। इसी को सबसे पहला उपनिषद् भी माना गया है तथा भगवत्तत्त्वस्वरूप ज्ञान काण्ड का बोधक कहा गया है तथा प्रथम मन्त्र में 'ईशावास्यम् इदं सर्वम्' वाक्य के अनुसार 'ईशावास्य उपनिषद् नाम दिया गया है। भारतीय परम्परा में उपनिषद्-गणना का जो सामान्यक्रम प्रचलित है, उसमें भी अपने विशेष महत्व के कारण इसे प्रथम स्थान पर रखा गया है। एक ओर विशेषता ये भी है कि यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व शार्वा दोनों ही में समान रूप से उद्धृत हैं तथा अधिकांश आचार्यों ने इस पर भाष्य एवं टीकाएं लिखी हैं।
ईशोपनिषद् एक लघुकाय उपनिषद् है, जिसमें कुल 18 मन्त्र हैं और सभी छन्दोबद्ध हैं। उपनिषद का सर्वलोक प्रिय मन्त्र है-

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ॥१॥

(अर्थात हे प्राणियो। इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन स्वरूप जगत् दृष्टिगोचर हो रहा है, यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ऐसा समझकर उन ईश्वर को निरन्तर अपने साथ रखते हुए, सदासर्वदा उनका स्मरण करते हुए ही तुम इस जगत् में त्याग भाव से केवल कर्तव्यपालन की दृष्टि से ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो अर्थात् विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मों का आचरण करो, अन्यत्र विषयों में मत फँसना, उनमें आसक्त मत होना क्योंकि ये धनादि भाग्य-पदार्थ किसी के भी नहीं हैं।)
सामग्री की दृष्टि से प्रथम तीन मन्त्रों में ही सूत्र रूप में समग्र विषय का प्रतिपादन हो गया है- द्वितीय मन्त्र में मनुष्यत्वाभिमानी के लिए कर्मनिष्ठा का उपदेश है कि मनुष्य को इस जगत् में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए, किन्तु कृतकर्मों में किसी भी दशा में लिप्त नहीं होना चाहिए-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा: ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥

तदनन्तर विषय विवेचन की दृष्टि से आत्मशून्य, अज्ञ जन की निन्दा, आत्मा की असीम सत्ता, अनन्तरूपता, सर्वव्यापकता का प्रतिपादन करते हुए सर्वात्मभावना का फल बताया गया है। पुनः विद्या और अविद्या, सम्भूति एवं असम्भूति की उपासनाओं के समुच्चय और उससे प्राप्त होने वाले अमृतत्व का उपदेश दिया गया है।
प्रायः सभी आचार्यों, व्याख्याकारों एवं आधुनिक विद्वानों ने ईशोपनिषद् की प्रतिष्ठा ज्ञान एवं कर्म के समन्वय-उपदेश के रूप में मानी है। आदि शंकराचार्य ने इसमें ज्ञाननिष्ठा एवं कर्मनिष्ठा का पृथक्तया प्रतिपादन माना है। सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार ब्रह्म एवं जगत् की एकता का उपदेश इस उपनिषद का मुख्य विषय है। महान् चिन्तक महर्षि अरविन्द के मत में न केवल ज्ञान और कर्म, अपितु अनेक विरोधी विचारों का समन्वय प्रस्तुत करना इस उपनिषद् का प्रमुख सिद्धान्त है। उपनिषद् के अन्तिम चार मन्त्रों में सत्य के साक्षात्कार के इच्छुक मरणोपरान्त उपासक की गहन मायाचना का वर्णन है।


ईशोपनिषद् एकत्वभाव की प्रतिष्ठा करने वाली और अनेक द्वन्दों का समन्वय करने वाली उपनिषद् है, जिस पर आधारित दर्शनों के अनेक प्रमुख सिद्धान्तों की परिकल्पना और अवधारणा प्रतिष्ठित है। इसके प्रत्येक मन्त्र से अनेक नूतन विचार प्रस्फुटित होते हैं - वेदान्त दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों की ये उपनिषद जननी है।
भारतीय आत्मविद्या एवं हिन्दूधर्म की प्रतिष्ठा के लिए इस उपनिषद् का सर्वातिशायी महत्त्व रहा है, जहाँ उपनिषद् के अन्त में-

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम ॥१८॥ , 

मन्त्र के द्वारा अग्निदेव से प्रार्थना की गई है कि वे मरणोपरान्त दहनोपरान्त हमें उस परमधन रूप परमेश्वर के शुभसुन्दर सामीप्य में उत्तरायण मार्ग से पहुँचाएँ तथा समस्त प्रतिबन्धकों को दूर कर दें।


प्रायः सभी आधुनिक चिन्तकों, विद्वानों एवं महापुरुषों ने ईशोपनिषद् श्री महिमा का गुणगान किया है। इस सम्बंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कथन विशेष रूप में उल्लेखनीय है, उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि - अब मैं इस अन्तिम निर्णय पर पहुँचा हूँ कि यदि समस्त उपनिषद् एवं दूसरे अन्य शास्त्र नष्ट हो जाते हैं और केवल ईशोपनिषद् का प्रथम-मन्त्र 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' ही हिन्दुओं की स्मृति में सुरक्षित रह जाता है तो भी हिन्दूधर्म सदा सर्वदा जीवित रहेगा। इस महान उपनिषद् में न केवल वेदों का सार है, अपितु गीता का बीज भी निहित है।

भगवान श्रीमद्भगवद्गीता में तत्वज्ञान एवं दर्शन के अधिकांश तथ्य ईशोपनिषद् से ही ग्रहण किए हैं। यही कारण है कि कालक्रम में सर्वाधिक भाष्य, टीकाएं और व्याख्याएं इसी उपनिषद् पर लिखी गई हैं। न केवल विषय-वस्तु की दृष्टि से अपितु पठन-रचना एवं वर्णन की विशेषता भी इस महनीय उपनिषद् की विशेषता है।
मात्र 18 मंत्रों में संकलित इस मूल यजुर्वेदीय उपनिषद् का पाठ, मनन एवं चिंतन प्रत्येक भारतीय को करना चाहिए।

 

पत्रिका