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अरण्यक साहित्य - प्रो कैलाश चतुर्वेदी
वेदविज्ञान वार्ता (19) - अरण्यक साहित्य
प्रो कैलाश चतुर्वेदी
प्रोफेसर कैलाश चतुर्वेदी अरण्यक साहित्य का विस्तारपूर्वक परिचय देते हैं। वह बताते हैं कि अरण्यक साहित्य वेदों का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो विशेष रूप से वन्य जीवन और गूढ़ यज्ञों से संबंधित विषयों का वर्णन करता है। अरण्यक साहित्य में धार्मिक, दार्शनिक और अनुष्ठानिक तत्वों का समावेश होता है, जो विशेष रूप से ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों के बीच का पुल बनाता है।
वेदविज्ञान वार्ता (18) - अथर्ववेदीय गोपथ ब्राह्मण:
प्रिय बन्धुओं,
उस असीम परमात्मा के स्वरूप, उसके द्वारा रचित अद्भुत, पञ्चपर्वा-सृष्टि, सृष्टि के विभिन्न दृष्टा ऋषि- पितर-देव - मनुज - प्रकृति एवं उनके बाँधक ऋक-यजु-साम-अथर्ववेदों एवं उनमें प्रथम तीन वेदों के व्याख्यापरक विभिन्न ब्राह्मण-ग्रंथों की चर्चा हमने इस वेदविज्ञान वार्ता श्रृंखला की पूर्व सत्रह संक्षिप्त वार्ताओं में की। प्रस्तुत है आज श्रृंखला की अठारहवीं कड़ी के रूप में अन्तिम अथर्ववेदीय गोपथ ब्राह्मण का संक्षिप्त परिचय।
यह एक विस्मयकारी शोध है कि अथर्ववेद की शाखाएँ तो हैं नौ, पर उनका व्याख्यापरक ब्राह्मणग्रंथ है केवल गोपथ ब्राह्मण। वस्तुतः अथर्ववेद की भी दो ही शाखाएँ - शौनकीय एवं पैप्पलाद प्रचलित एवं उपलब्ध हैं। सुदीर्घकाल से अन्वेषण के उपरान्त भी गोपथ ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रंथ की कोई चर्चा नहीं है। पतंजलि द्वारा रचित व्याकरण- महाभाष्य एवं वैंकटमाधव द्वारा रचित ऋग्वेदानुक्रमणी में गोपथ को ही दोनों शाखाओं शौनकीय एवं पैप्पलाद का एकमात्र व्याख्यात्मक ब्राह्मण स्वीकार किया गया है।
‘गोपथ ब्राह्मण’ नामकरण के पीछे भी कुछ रोचक तथ्य हैं - प्रथमतः ऋषि गोपथ इसके प्रवक्ता होने के कारण इसका नामकरण उन्हीं के नाम पर हुआ, दूसरे 'अथर्वाङ्गिरसौ हि गोप्तार’- ‘ग्रुप’ धातु के आधार पर गोपथ नामकरण हुआ और तीसरे इसमें संकलित सामग्री का पुष्कल-भाग ‘शतपथ ब्राह्मण' से लिए जाने के कारण उसकी तर्ज पर इसे ‘गोपथ ब्राह्मण’ कहा गया।
सामग्री की दृष्टि से ‘गोपथ ब्राह्मण’ में केवल ग्यारह प्रपाठक एवं 258 काण्डिकाएं सम्मिलित हैं - जिनमें 5 प्रपाठक एवं 135 काण्डिकाएं पूर्वभाग में तथा 6 प्रपाठक एवं 123 काण्डिकाएं उत्तरभाग में अधुना उपलब्ध हैं, जबकि चरणव्यूह परिशिष्ट में गोपथ ब्राह्मण के पूर्व में 100 प्रपाठकों का उल्लेख मिलता है - "तत्र गोपथ: शत्प्रपाठकं ब्राह्मणं आसीत् तस्यावशिष्टे द्वे ब्राह्मणे पूर्वम् उत्तरं च" - सहज ही हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि साधन-सुरक्षा के अभाव में कितनी महत्त्वपूर्ण वेदनिधि लुप्त हो गई इस देश की।
इसी क्रम में गोपथ ब्राह्मण में निहित सामग्री का समग्र - विश्लेषण करने पर यह भी तथ्य उद्घाटित हुआ है कि अनेक स्थलों पर इसकी सामग्री का कोषीतकि - शतपथ एवं ऐतरेय ब्राह्मण से साम्य मिलता है, जो सभी वेद-ग्रंथों की सामग्री की एकता एवं समानता की पुष्टि करता है।
गोपथ ब्राह्मण में प्रतिपादित विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक है। संक्षेप में प्रमुख वर्णनीय विषय हैं - सृष्टि रचना की कामना से स्वयम्भू- ब्रह्म का तप, जल सृष्टि, जल में रेतःस्खलन, शान्त-जल- समुद्र से मृगु अथर्वा-आथर्वण- ऋषि, अथर्ववेद, ओंकार, लोक एवं सूर्य-पृथ्वी-चन्द्र त्रयी का आविर्भाव वर्णित है - उसी अशान्त-जल से यज्ञादि की उत्पत्ति बताई गई है। तदनन्तर प्रणवोपनिषद है जिसमें पुष्कर में ब्रह्म द्वारा निर्मित ब्रह्म-सृष्टि, ओंकार-दर्शन, वेद, इतिहास, एवं अन्य वाङ्मय की रचना का क्रमिक विवरण है।
अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों के समान ही गोपथ ब्राह्मण में भी मानव-शरीर-रचना को यज्ञ-स्वरूप माना गया है और मानवीय - कर्तव्यों की भी यज्ञरूप में विशद् मीमांसा की गई है। ब्रह्मचर्यावस्था से लेकर सन्यासावस्था तक विहित कर्मों की मीमांसा 'गोपथ' में हुई है - ब्रह्मचारी के कर्तव्य, गृहस्थ द्वारा दर्शपूर्णमास, ब्रह्मोद्य, अग्निहोत्र, आनिष्टोम, गवामायनादि सत्र योगों एवं ऋत्विकों के कर्तव्यों का समग्र विवेचन ग्रन्थ में हुआ है। गोपथ ब्राह्मण के प्रपाठक (1.5.23) के निम्न- मन्त्र इसकी पुष्टि करते हैं:
“सायं प्रातर्होमौ स्थालीपाको नवश्य यः ।
बलिश्च पितृयज्ञश्चाष्टका सप्तम: पशु || इत्येते पाकयज्ञा: |
अग्न्याधेयमाग्निहोत्रं पौर्णमास्यमावास्ये,
नवेष्टिश्चातुर्मास्यानि पशुबन्धोऽत्र सप्तमः । इत्येते हविर्यज्ञा: । “
ऐतिहासिक एवं सामाजिक दृष्टि से भी गोपथ ब्राह्मण में प्रचुर - प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध हुई है। तत्समय भृगु, आंगिरस, अथर्वा प्रभृति महारिषियों के आविर्भाव, मानवेतर प्रजाति, सर्प, पिशाच, असुर, इतिहास एवं पुराणादि विषयों पर विशेष सामग्री, विभिन्न ऋषियों के आश्रमों के रूप में विपाशा नदी, वाशिष्ठ शिला, प्रभव, गुंगुवास, अगस्त्यतीर्थ, कश्यपतुङ्ग आदि भौगोलिक महत्त्व के स्थानों - कुरु- पांचाल, अङ्ग-मगध-काशी-शाल-मत्स्य सवरक्षित । उशीवर एवं वत्स जनपदों का उल्लेख, राजाओं में परीक्षित पुत्र जनमेजय, राजा यौवनाश्व एवं रघुवंश के प्रजेता सम्राट मान्धाता प्रसंग ‘गोपथ ब्राह्मण' में संकलित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक थाती है।
मानवीय-आचार-संहिता की दृष्टि से गोपथ ब्राह्मण का स्तर अत्यन्त उच्च एवं उदात्त है। श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त व्यक्ति ही यज्ञ दीक्षा एवं यज्ञ कर्म का अधिकारी बन सकता है - 'श्रेष्ठां धियं क्षियतीति, तं वा एतं धीक्षितं सन्तं दीक्षित इत्य् आचक्षते परोक्षेण (1.3.19)’ इसी प्रकार मनोभावों की महत्ता बताई गई है - व्यक्ति मन से जैसा सोचता है - वैसा ही होता है - इसलिए कोई भी कार्य आधे-अधूरे मन से नहीं करना चाहिए। सुरक्षित धर्म ही मानव की रक्षा करता है। (1.2.4) धर्मो हैनं गुप्तो गोपायति - का मूल मन्त्र गोपथ ब्राह्मण द्वारा ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ का सन्देश वाहक है।
सारांश में अथर्ववेदीय गोपथ ब्राह्मण भारतीय वैदिक ज्ञान का एक अनुपम भंडार है, जिसका अध्ययन प्रत्येक भारतीय को करना चाहिए।